Tuesday, December 27, 2016

मयस्सर डोर से फिर एक मोती झड रहा है, तारीखों के जीने से दिसंबर उतर रहा है।

कुछ चेहेरे घटे, चंद यादे जुडी, गए वक्त मे,
उम्र का पंछी नित दूर ...और दूर, उड रहा है।
गुनगुनी धूप और ठिठुरी राते,
जाडो की गुजरे लम्हों पर झिना झिना पर्दा गिर रहा है,
फिर एक दिसंबर गुजर रहा है.....

मिट्टी का जिस्म एक दिन मिट्टी मे मिलेगा,
मिट्टी का पुतला किस बात पर अकड रहा है?
जायका लिया नही और फिसल रही जिंदगी ,
आसमॉ समेटता वक्त बादल बन उड रहा है
फिर एक दिसंबर गुजर रहा है........

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