Thursday, December 17, 2020

कन्हैया! क्या सचमुच नंदगांव से चले जाओगे ?”

“कन्हैया! क्या सचमुच नंदगांव से चले जाओगे?”
आँखों में यमुना की धार लिए खड़ी विमला ने जैसे अंतिम प्रयास किया। “नंदगांव से जाने के लिए ही तो रथ द्वार पर है विमला! पर तुम्हारे हृदय से कभी नहीं जाऊंगा, यह टेक रही।” “अरे छोडो भी, तुम्हारा तो जन्म ही दुनिया को भरमाने के लिए हुआ है शायद। हमनें तो सोचा था कि तुम्हारे बियाह में नाचने के बदले मरने पर तुम्हारे हाथ की लकड़ियाँ मिल जाएंगी, तुम तो अभी छोड़ कर जा रहे हो।” कृष्ण मुस्कुराये, “हट झूठी! हमनें तो सौ बार कहा कि राधा से मेरा बियाह करा दे, पर तूने एक बार नहीं सुनी। नाचने की साध पूरी न हो गयी होती। तुझे तो साध ही न थी।” ” इतना छलना कहाँ से सीखा रे छलिये? नंदगांव के ग्वालों में तो छल का लेश भी न था। अरे हाँ, तू तो राजा का बेटा है न, फिर क्यों न छले। राजाओं का तो काम ही है छल करना। पर तू क्या सोचता है, तुम्हारी इन झूठी बातों से हमारी पीर थम जायेगी?” कृष्ण ने अनुभव किया, जैसे छाती के भीतर कहीं से उठी एक टीस ऊपर आ कर गले को बांध रही है, और आँखे भींगने ही वाली हैं। उन्होंने बात बदली, “अच्छा छोड़ विमला; यह बता, मैं जा रहा हूँ तो मुझे कुछ उपहार न देगी?” विमला ने कुछ देर अपलक निहारा उस सांवले को, जैसे उसे आँखों की पुतलियों पर छाप लेना चाहती हो। फिर बोली, “दरिद्रों का सबसे बड़ा धन क्या होता है, जानते हो कान्हा?” कृष्ण बोले- नहीं रे गुरुआनी, तू ही बता दे। विमला बोली, “हाँ तू क्यों जाने, तू तो राजा ठहरा। पर जान ले, दरिद्रों का सबसे बड़ा धन उनके आँख की लोर होती है। वही उनका मूल होता है और वही लाभ। राजा कितनी भी सम्पत्ति क्यों न बना ले, उसके पास यह धन नहीं होता। कह तो उपहार में वही दे दूँ? पर तू मेरे अश्रुओं का करेगा क्या?” कृष्ण के पास कोई उत्तर नहीं था। उन्होंने फिर बात बदली, “अच्छा जा झूठी ग्वालन, कुछ देना तो है नहीं, झूठ मुठ का बात बनायेगी। हट मुझे राधा के पास जाना है।” “आहाहा! बड़ा आया राधा के पास जाने वाला! अच्छा एक बात बताओ मोहन! हमारी तो जाने दो, पर क्या तुम्हे राधा पर भी मोह नहीं आता? क्या उसके अश्रुओं का भी तुम्हारी दृष्टि में कोई मोल नहीं?” कृष्ण पहली बार गंभीर हुए, “राधा की आँखों से यदि अश्रु की एक बूंद भी गिरे तो समझना कि कृष्ण को प्रेम करना ही नहीं आया। प्रेम पाने की लालसा का नाम नहीं, प्रेम त्याग कर सकने की शक्ति का नाम है। अच्छा तो मैं जा रहा हूँ। याद रखूँगा कि जाते समय विमला ने मुझे कोई उपहार नहीं दिया।” विमला ने मुह में आँचल का पूरा कोना ठूस कर मन ही मन कहा, “तुम क्या जानो कि विमला का क्या ले कर जा रहे हो कन्हैया, जाओ खुश रहो।”

 कृष्ण का रथ तैयार था, पर वे भागे भागे पहुँचे बूढ़े पीपल की छांव में, जिसकी जड़ों पर चुपचाप निढाल पड़ी राधिका का मुह कृष्ण के उत्तरीय की तरह पीला हो गया था, जैसे उसने अपने मुख पर ही कृष्ण को ओढ़ लिया हो। कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “जा रहा हूँ राधे, विदा न करोगी?” 

राधा देर तक निःशब्द पड़ी रही, फिर सर झुका कर ही कहा, ” फिर आओगे न?” कृष्ण गंभीर हुए, “कौन जाने राधा! नियति बड़ी क्रूर होती है और कर्तव्य बड़ा ही कठोर।” राधा ने सर झुका कर ही कहा, “एक बात पूछूं कृष्ण, जब जाना ही था तो आये क्यों थे?” कृष्ण के मुख पर उदासी पसर गयी थी। बोले, “जानती हो राधा, यदि नहीं गया तो आने वाले युगों युगों तक संसार तुम पर ही लांछन लगाएगा।” राधा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह शायद उत्तर देने का क्षण ही नहीं था, समूचे बृंदाबन का तृण-तृण जैसे मौन पड़ा था। राधा ने फिर पूछा, “अच्छा कृष्ण, तुम्हे हमारी याद तो आएगी न?” कृष्ण कांप गये। बोले, ” अब क्या रो दूँ तब मानोगी राधिका? स्मरण रहे, इस जगत में सिर्फ हमीं दोनों हैं जिन्हें रोने का अधिकार नहीं। तुम्हें मैं क्या याद रखूँगा, हमें युग याद रखेंगे।” राधा ने शीश झुका कर ही कहा, “तुम्हें तो सब देवता कहते हैं न कृष्ण, एक बात मानोगे?” कृष्ण ने उच्छ्वास की तरह शब्द उगला, “कहो राधिके।” राधा ने कहा, “इस जगत को आशीर्वाद देना कि फिर यहां कोई राधिका न जन्मे।” कृष्ण बिना उत्तर दिए ही मुड़ गये।

 कौन जाने उन्होंने राधिका की बात मानी भी या नहीं।